Monday, 19 June 2017

शौच नहीं सोच बनाने की ज़रूरत है।


    शौच नहीं सोच बनाने की ज़रूरत है।

देश में स्वच्छता अभियान का ये चौथा साल है। वैसे गाँधी जी ने इसकी शुरुआत बिहार के चम्पारण से सौ साल पहले ही कर दी थी, पर पिछले कुछ सालों से ये विषय फिर से चर्चा में है और आज सरकारी दावे के हिसाब से पूरे देश में लाखों करोड़ों टॉयलेट का निर्माण हो चुका है। कई राज्यों के कई ज़िले यहाँ तक की कई नगर, महानगर खुले में शौच मुक्त क्षेत्र घोषित हो चुके हैं । ये होना भी चाहिए, इसमें कोई संशय नहीं है और किसी को होना भी नहीं चाहिए पर ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और है। एक बानगी देश के सबसे बड़े महानगर मुम्बई की ही देख लीजिए, राज्य सरकार ने इसे खुले में शौच मुक्त शहर घोषित कर दिया। बाद में जब कुछ समाजिक संगठन और इस दिशा में काम करने वाले कुछ लोग, समाजिक कार्यकर्ता और मीडियाकर्मी  मुंबई शहर के कई ऐसे क्षेत्रों का नाम लोगों के सामने लेकर आये जहाँ पूरे के पूरे इलाके में एक भी शौचलय नहीं है दूर दूर तक, तो सरकार ने ये कहते हुए अपने आप को इससे अलग कर लिया की ये इलाका रेलवे, डिफेन्स या किसी ना किसी और संस्था के अधीन आता है। देश की आर्थिक राजधानी कहे जाने वाले शहर के ये हालात हैं, तो आप सहज अंदाजा लगा सकते हैं देश के अन्य हिस्सों में स्वच्छता अभियान के तहत खुले में शौच मुक्त क्षेत्र की वास्तविक हक़ीकत क्या होगी।

देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले के प्राचीर से पहली बार ऐसे विषय को उठाकर भारतीय समाज को एक नयी दिशा में ले जाने का वो काम किया है जिसके लिए भारतीय समाज ख़ासकर महिला वर्ग हमेशा उनका आभारी रहेगा। क्योंकि अब तक ये होता आया है कि देश के प्रधानमंत्री हर साल स्वतंत्रता दिवस के मौके पर बड़ी बड़ी घोषणाएं करते हैं पर पहली बार 2014 में ऐसा हुआ की हर घर की शौच की समस्या को मोदी जी ने नयी सोच दी और हर घर में शौचालय बनाने की बात की।
 ऐसा नहीं है कि मोदी जी ने ही पहली बार इस मुद्दे पर बात की। देश में नब्बे के दशक में टोटल सैनिटेशन का प्रोग्राम चल रहा था पर मोदी ने इस बड़ी समस्या को लोगों के बीच लाकर इसे अस्मिता से जोड़कर एक बड़ा मुद्दा बनाया और इस दिशा में सभी को अपना योगदान देने का आहवान किया। सरकार अपना काम करती है पर कोई भी सरकार तब तक सफल नहीं हो सकती है जब तक उसकी योजनाओं में जनभागीदारी ना हो और ख़ासकर ये तब और महत्वपूर्ण हो जाता है जब ये देश के हर घर के हर व्यक्ति से जुड़ा मुद्दा हो।

अभी भी सरकार अपने मक़सद में आंशिक रूप से भी सफल नहीं हो पायी है। इसकी वजह ये है कि लोगों ने इसके बारे में बात तो करनी शुरू कर दी पर ये बात बनकर ही रह गयी। देश में 64 प्रतिशत लोग खुले में शौच करते हैं। ये भारत का आंकड़ा है। हर राज्य में लोगों का खुले में शौच करने के प्रतिशत में कुछ का ही अन्तर है कमोबेश देश के सभी राज्य की यही स्थिति है। पहले भी यही स्थिति थी और अब भी लगभग वही हालात हैं।  यहाँ सरकार और समाजसेवी संस्थाओं ने सोच बनाने के बजाय शौच बनाने पर ज़ोर दे दिया है और यही इस अभियान का सबसे कमज़ोर पक्ष उभरकर सामने आ रहा है। ये तो सर्वविदित है कि पूरे देश में अगर 64 प्रतिशत लोगों के पास शोचालय नहीं है तो इसमें 10-15 प्रतिशत ही लोग ऐसे है जो अपने बलबूते टॉयलेट बनाने की स्थिति में नहीं है बाकि के लोगों की सोच नहीं बन पा रही है शौचालय बनाने की।

 इसी सोच को मैंने 2012 में "मेरे प्यारे प्राइम मिनिस्टर" नाम से एक फिल्म की कहानी में उतारा था, और खुद ही डायरेक्ट करने की कोशिश की थी पर तब लीक से हटकर सब्जेक्ट होने की वजह से फिल्म बन नहीं पाई थी पर अब उसी 8 साल के एक अनाथ बच्चे की अपनी माँ के लिए टॉयलेट बनाने की कहानी को राकेश ओमप्रकाश मेहरा डायरेक्ट कर रहे हैं । ये मेरी लिखी दूसरी फिल्म है, पहली लिखी फिल्म भी बनने की दिशा में अग्रसर है।

                                       मनोज मैरता
                             manojmairta@gmail.com


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