क्या कभी एक राइटर की फिल्म देखने के लिए थिएटर गए हैं?
कला के कई माध्यमों में सिनेमा की पहुँच आम लोगों तक सबसे अधिक है और इस माध्यम का लोगों के दिल पर काफी गहरा असर है। सिनेमा ही एक ऐसा माध्यम है जिसमे सब कलाओं का समावेश है।इसीलिए इस क्षेत्र में काम करने वाले लोगों के बारे में जानने के लिए आम जनता में काफी उत्सुकता रहती है। और उनसे जुड़ी पल पल की खबरें मीडिया में भी आती रहती है कई तरीके से। पर ये खबरें सिर्फ स्टार और सुपर स्टार तक ही सीमित रह जाती है चाहे वो गॉसिप हो या उनके काम की सराहना। इसके बाद अगर किसी का इस माध्यम में सबसे ज़्यादा नाम होता है वो है डायरेक्टर का। अधिकांश दर्शक किसी फिल्म को उसमे काम करने वाले स्टार की वजह से देखने का मन बनाते हैं। भाई की फिल्म है, अमिताभ बच्चन की फिल्म है वगैरह वगैरह! अगर ऐसा नहीं है तो फिर दूसरा पैमाना ये आता है ये फलाना फलाना डायरेक्टर की फिल्म है कुछ अलग ला रहे हैं। देखते हैं। इस के बाद अगर कुछ बच जाता है तो वो है फिल्म समीक्षा और पब्लिक व्यूज। सोशल नेटवर्किंग के ज़माने में लोगों की पॉजिटिव रिस्पांस की वजह से भी दर्शक थिएटर तक पहुचते हैं। पर कभी ऐसा नहीं हुआ है कि कोई दर्शक इस वजह से फिल्म देखने का मन बनाये कि इसे अमुक या फलाना राइटर ने लिखा है।
भारतीय सिनेमा के इतिहास में अगर कोई फिल्म राइटर का नाम जानता है तो वो सलीम जावेद हैं।(गीतकार की बात अलग है और इनके लिए उन्हें साहिर लुधियानवी जी का कृतज्ञ होना चाहिए ) पॉपुलर राइटर की पहचान इन्हीं दो लोगों से शुरू होकर इन्हीं पर ख़त्म हो जाती है। मेरी जानकारी गलत भी हो सकती है पर सच से इंकार नहीं किया जा सकता है कि आज तक फिल्म लेखन के क्षेत्र में इनके बराबर नाम कोई और नहीं बना पाया है। इनके समय से लेकर आजतक कई स्टार, सुपर स्टार उभरे हैं, कई बड़े, टॉप के डायरेक्टर बने पर इन लोगों को स्टार, सुपर स्टार या टॉप का डायरेक्टर बनाने वाला कोई एक भी राइटर आज तक स्टार या टॉप का राइटर नहीं बना है। टॉप का राइटर तो एक दूर की बात है कई फिल्मों की जानदार कथा, पटकथा, संवाद लिखने वाले लेखक के नाम तक लोग नहीं जानते हैं। भई कैसे जानेंगे कभी एक्टर्स और डायरेक्टरस ने लोगों को, मीडिया को बताया ही नहीं कि इसे किसने लिखा है। राइटर को कभी कभी तो एक्टर्स से मिलने भी नहीं दिया जाता है। डायरेक्टर की बात शुरू ही होती है 'मैं' से। मैं ऐसा सोचता हूँ, मेरी फिल्में ऐसी होती है। जब ये सब्जेक्ट मैंने सुना तब मुझे लगा कि मुझे ये फिल्म करनी है। ये स्क्रिप्ट, सब्जेक्ट, आईडिया, कथा-कहानी किसने सुनाई, उनका कभी नाम नहीं लेंगे। एक्टर्स बोलेंगे जब महेश/नितेश/बोहरा- सब एक ही सुर में राग अलापते हैं(ये नाम सिर्फ सिम्बोलिक हैं) मेरे पास ये कहानी लेकर आया, मुझे लगा ये नया सब्जेक्ट है, अलग है, इंटेरस्टिंग है और लिक से हटकर है और मैंने हाँ कर दी।
एक लेखक जो दुनिया से कटकर एक स्क्रिप्ट के ख्यालों में कई सालों तक खोया रहता है और एक कहानी को पकाता है, सजाता, संवारता है और जब उसका फल काटने का समय आता है तो वो ही उसके पायदान पर सबसे नीचे रहता है। एक फिल्म बनने की शुरुआत ही एक कहानी, स्क्रिप्ट से होती है। एक फिल्म की नींव, बुनियाद एक राइटर अपनी स्क्रिप्ट से रखता है, पर उसे क्या मिलता है। कुछ भी नहीं। एक स्क्रिप्ट जिसपर कभी उनका नाम लिखा होता था, आज जब फिल्म रिलीज़ होने को होती है तब उनकी ही लिखी फिल्म के टीज़र, ट्रेलर्स, पोस्टर्स में उनका नाम तक नहीं होता है कई बार। ना कभी उन्हें प्रमोशन में ले जाया जाता है और ना ही कभी मीडिया में उनकी बातों को रखने के लिए आगे लाया जाता है। कुछ मीडियाकर्मी है जो कभी कभार राइटर्स का भी इंटरव्यूज कर लेते है, टीवी स्टुडियो बुला बतिया लेते हैं। पर सब के साथ ऐसा कहाँ होता है।
भारतीय सिनेमा के इतिहास में कब वो दिन आएगा जब लोग एक राइटर की लिखी फिल्म को देखने के लिए जायेगें चाहे उसे कोई एक्ट करें या डायरेक्ट। कब वो दिन आएग जब एक फिल्म के पोस्टर्स पर Mario Puzo's The Godfather की तरह भारतीय सिने लेखकों के नाम लिखें होंगे।
एक्टर्स और डायरेक्टर्स से तो ये उम्मीद छोड़ ही देनी चाहिए। राइटर को अपने हक़ के लिए ख़ुद ही आगे आना होगा। मुझे आज साहिर लुधियानवी बहुत याद आते हैं जिन्होंने अकेले अपने बलबूते गीतकारों के हक़ के लिए इतना कुछ कर गए। मुझे सलीम-जावेद का एटिट्यूड अच्छा लगता है कि कैसे उन्होंने अपने शर्तों पर काम किया।
ऐसा होगा और ज़रूर होगा एक राइटर अपने हक़ के लिए जिस दिन लड़ना शुरू करेगा उस दिन किसी की मजाल नहीं है उनके साथ कोई खिलवाड़ कर सके । ये उस दिन होगा जिस दिन एक डायरेक्टर राइटर की लिखी स्क्रिप्ट पर अपना नाम लिखना छोड़ देंगे। लेखन में अपना क्रेडिट सिर्फ बौद्धिकता दिखाने के लिए जोड़ना छोड़ देंगे। तब एक दिन आयेगा जब लोग सिर्फ इसीलिए एक फिल्म देखने के लिए जायेंगे कि इसे अमुक राइटर ने लिखा है। भारतीय सिनेमा के लिए ये दिन आना वैसा ही जैसा भरतीय सिनेमा के लिए प्रयुक्त किये जाने वाले हॉलीवुड की नक़ल शब्द बॉलीवुड को हटाना। पर आना अवश्यभावी हैं ।
नोट: सलीम साहब ने एक इंटरव्यू में कहा था कि writing एक ऐसा डिपार्टमेंट है जिसमे आपके प्रोडक्शन बॉय से लेकर आपके ड्राइवर तक के पास suggestion, सुझाव होते हैं, पर जब उनके हाथ में एक खाली पेज थाम दो तो पूरे दिन वो पेज पर एक शब्द भी नहीं लिख पाते हैं। यहीं मैं उन डायरेक्टर्स को भी कहना चाहूंगा कि अगर उन्हें किसी की लिखी स्क्रिप्ट में अपना भी नाम जोड़ने की आदत है तो कभी खुद भी एक आईडिया को कहानी, स्क्रिट में बदलकर देखें और as an independent writer नाम लिखें और गर्व से लोगों को बताएं।
कला के कई माध्यमों में सिनेमा की पहुँच आम लोगों तक सबसे अधिक है और इस माध्यम का लोगों के दिल पर काफी गहरा असर है। सिनेमा ही एक ऐसा माध्यम है जिसमे सब कलाओं का समावेश है।इसीलिए इस क्षेत्र में काम करने वाले लोगों के बारे में जानने के लिए आम जनता में काफी उत्सुकता रहती है। और उनसे जुड़ी पल पल की खबरें मीडिया में भी आती रहती है कई तरीके से। पर ये खबरें सिर्फ स्टार और सुपर स्टार तक ही सीमित रह जाती है चाहे वो गॉसिप हो या उनके काम की सराहना। इसके बाद अगर किसी का इस माध्यम में सबसे ज़्यादा नाम होता है वो है डायरेक्टर का। अधिकांश दर्शक किसी फिल्म को उसमे काम करने वाले स्टार की वजह से देखने का मन बनाते हैं। भाई की फिल्म है, अमिताभ बच्चन की फिल्म है वगैरह वगैरह! अगर ऐसा नहीं है तो फिर दूसरा पैमाना ये आता है ये फलाना फलाना डायरेक्टर की फिल्म है कुछ अलग ला रहे हैं। देखते हैं। इस के बाद अगर कुछ बच जाता है तो वो है फिल्म समीक्षा और पब्लिक व्यूज। सोशल नेटवर्किंग के ज़माने में लोगों की पॉजिटिव रिस्पांस की वजह से भी दर्शक थिएटर तक पहुचते हैं। पर कभी ऐसा नहीं हुआ है कि कोई दर्शक इस वजह से फिल्म देखने का मन बनाये कि इसे अमुक या फलाना राइटर ने लिखा है।
भारतीय सिनेमा के इतिहास में अगर कोई फिल्म राइटर का नाम जानता है तो वो सलीम जावेद हैं।(गीतकार की बात अलग है और इनके लिए उन्हें साहिर लुधियानवी जी का कृतज्ञ होना चाहिए ) पॉपुलर राइटर की पहचान इन्हीं दो लोगों से शुरू होकर इन्हीं पर ख़त्म हो जाती है। मेरी जानकारी गलत भी हो सकती है पर सच से इंकार नहीं किया जा सकता है कि आज तक फिल्म लेखन के क्षेत्र में इनके बराबर नाम कोई और नहीं बना पाया है। इनके समय से लेकर आजतक कई स्टार, सुपर स्टार उभरे हैं, कई बड़े, टॉप के डायरेक्टर बने पर इन लोगों को स्टार, सुपर स्टार या टॉप का डायरेक्टर बनाने वाला कोई एक भी राइटर आज तक स्टार या टॉप का राइटर नहीं बना है। टॉप का राइटर तो एक दूर की बात है कई फिल्मों की जानदार कथा, पटकथा, संवाद लिखने वाले लेखक के नाम तक लोग नहीं जानते हैं। भई कैसे जानेंगे कभी एक्टर्स और डायरेक्टरस ने लोगों को, मीडिया को बताया ही नहीं कि इसे किसने लिखा है। राइटर को कभी कभी तो एक्टर्स से मिलने भी नहीं दिया जाता है। डायरेक्टर की बात शुरू ही होती है 'मैं' से। मैं ऐसा सोचता हूँ, मेरी फिल्में ऐसी होती है। जब ये सब्जेक्ट मैंने सुना तब मुझे लगा कि मुझे ये फिल्म करनी है। ये स्क्रिप्ट, सब्जेक्ट, आईडिया, कथा-कहानी किसने सुनाई, उनका कभी नाम नहीं लेंगे। एक्टर्स बोलेंगे जब महेश/नितेश/बोहरा- सब एक ही सुर में राग अलापते हैं(ये नाम सिर्फ सिम्बोलिक हैं) मेरे पास ये कहानी लेकर आया, मुझे लगा ये नया सब्जेक्ट है, अलग है, इंटेरस्टिंग है और लिक से हटकर है और मैंने हाँ कर दी।
एक लेखक जो दुनिया से कटकर एक स्क्रिप्ट के ख्यालों में कई सालों तक खोया रहता है और एक कहानी को पकाता है, सजाता, संवारता है और जब उसका फल काटने का समय आता है तो वो ही उसके पायदान पर सबसे नीचे रहता है। एक फिल्म बनने की शुरुआत ही एक कहानी, स्क्रिप्ट से होती है। एक फिल्म की नींव, बुनियाद एक राइटर अपनी स्क्रिप्ट से रखता है, पर उसे क्या मिलता है। कुछ भी नहीं। एक स्क्रिप्ट जिसपर कभी उनका नाम लिखा होता था, आज जब फिल्म रिलीज़ होने को होती है तब उनकी ही लिखी फिल्म के टीज़र, ट्रेलर्स, पोस्टर्स में उनका नाम तक नहीं होता है कई बार। ना कभी उन्हें प्रमोशन में ले जाया जाता है और ना ही कभी मीडिया में उनकी बातों को रखने के लिए आगे लाया जाता है। कुछ मीडियाकर्मी है जो कभी कभार राइटर्स का भी इंटरव्यूज कर लेते है, टीवी स्टुडियो बुला बतिया लेते हैं। पर सब के साथ ऐसा कहाँ होता है।
भारतीय सिनेमा के इतिहास में कब वो दिन आएगा जब लोग एक राइटर की लिखी फिल्म को देखने के लिए जायेगें चाहे उसे कोई एक्ट करें या डायरेक्ट। कब वो दिन आएग जब एक फिल्म के पोस्टर्स पर Mario Puzo's The Godfather की तरह भारतीय सिने लेखकों के नाम लिखें होंगे।
एक्टर्स और डायरेक्टर्स से तो ये उम्मीद छोड़ ही देनी चाहिए। राइटर को अपने हक़ के लिए ख़ुद ही आगे आना होगा। मुझे आज साहिर लुधियानवी बहुत याद आते हैं जिन्होंने अकेले अपने बलबूते गीतकारों के हक़ के लिए इतना कुछ कर गए। मुझे सलीम-जावेद का एटिट्यूड अच्छा लगता है कि कैसे उन्होंने अपने शर्तों पर काम किया।
ऐसा होगा और ज़रूर होगा एक राइटर अपने हक़ के लिए जिस दिन लड़ना शुरू करेगा उस दिन किसी की मजाल नहीं है उनके साथ कोई खिलवाड़ कर सके । ये उस दिन होगा जिस दिन एक डायरेक्टर राइटर की लिखी स्क्रिप्ट पर अपना नाम लिखना छोड़ देंगे। लेखन में अपना क्रेडिट सिर्फ बौद्धिकता दिखाने के लिए जोड़ना छोड़ देंगे। तब एक दिन आयेगा जब लोग सिर्फ इसीलिए एक फिल्म देखने के लिए जायेंगे कि इसे अमुक राइटर ने लिखा है। भारतीय सिनेमा के लिए ये दिन आना वैसा ही जैसा भरतीय सिनेमा के लिए प्रयुक्त किये जाने वाले हॉलीवुड की नक़ल शब्द बॉलीवुड को हटाना। पर आना अवश्यभावी हैं ।
नोट: सलीम साहब ने एक इंटरव्यू में कहा था कि writing एक ऐसा डिपार्टमेंट है जिसमे आपके प्रोडक्शन बॉय से लेकर आपके ड्राइवर तक के पास suggestion, सुझाव होते हैं, पर जब उनके हाथ में एक खाली पेज थाम दो तो पूरे दिन वो पेज पर एक शब्द भी नहीं लिख पाते हैं। यहीं मैं उन डायरेक्टर्स को भी कहना चाहूंगा कि अगर उन्हें किसी की लिखी स्क्रिप्ट में अपना भी नाम जोड़ने की आदत है तो कभी खुद भी एक आईडिया को कहानी, स्क्रिट में बदलकर देखें और as an independent writer नाम लिखें और गर्व से लोगों को बताएं।
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