Friday, 23 June 2017

पत्रकारिता की पाठशाला

पत्रकारिता की पाठशाला
दैनिक सीएनएन में छपी इस लेख का किस्सा भी बड़ा इंटरेस्टिंग है। मैं माखन लाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, नॉएडा कैम्पस (सत्र 2004-2006) का MA in Broadcast Journalism का प्रथम वर्ष का छात्र था और पहले साल से ही मैं किसी न्यूज़पेपरस और मैगजीन्स में बतौर इन्टर्न काम करना चाहता था। इसके लिए कॉलेज के क्लासेज के बाद मीडिया संस्थानों के चक्कर लगाने लगा। चक्कर लगाते लगाते काफी दिन गुजर गए पर कहीं इंटर्न का कोई काम नहीं मिला।
            मेरे बड़े भाई Binod Mairta के एक दोस्त Sanjeev Kumar से मिलने cannaught palace स्थित उनके ऑफिस गया मैं। सर्दी का महीना शुरू हो चुका था पर दिल्ली में उस समय भी काफी गर्मी थी और पसीने से तरबतर उनके ऑफिस पंहुचा मैं। काफी रात हो चुकी थी । रिसेप्शन पर कोई नहीं था। एक शख्स सोफा पर आराम के मुद्रा में बैठे थे और टीवी पर उस दिन की छठ की खबरें देख रहे थे। बाद में पता चला उनका नाम मनोज कनक था और वो CNN MAGAZINE में senior post पर थे, उनसे मैंने संजीव भैया के बारे में पूछा।  वो भी उसी मैगज़ीन के स्पोर्ट्स रिपोर्टर थे। मनोज कनक ने बोला वो तो नहीं है। कुछ काम है तो मुझे बताओ। मैंने शालीनतावश कहाँ नहीं भैया से मिलने आया था। पर उस वक़्त कुछ ऐसा मन हुआ की उनसे पूछ लूँ की यहाँ मुझे इन्टर्न का काम मिलेगा। पूछने के लहजे में इतनी विनम्रता या डर था कि वो सुनते ही उस समय मेरी स्थिति को देखकर बड़े कोफ़्त भरे शब्दों में बोले तुमलोग journalist की अगली पीढ़ी हो और ऐसे डर डर के पेश आओगे तो पत्रकारिता कैसे करोगे। बिंदास होकर रहो और कल से आकर ज्वाइन करो और जमकर पत्रिकारिता करो। उनका लिखा एक लेख आज तक मेरे जेहन में है -  Black is beauty. ये उस महीने मैगज़ीन की कवर स्टोरी थी।
              एक English मैगज़ीन के बन्दे ने मुझे हिंदी न्यूज़पेपर में बतौर इंटर्न भेज दिया था और ये बात हिंदी पेपर के लोगों को हजम नहीं हो रही थी। हालाँकि कंपनी एक ही थी CNN  फिर भी दोनों माध्यमों के लोगों को अपने किसी भी तरह के स्टाफ को चुनने की आजदी थी और यही बात दैनिक सीएनएन के एडिटर देवेंद्र मांझी को शायद हजम नहीं हो रही थी और मैं ऑफिस तो आता था पर कोई जिमेदारी नहीं दी जाती थी। कह दिया जाता था जाइये खबरें ले आइये। मैं निकल पड़ता था ख़बरों की तलाश में। ऐसे मेरे पत्रकार जीवन की शुरुआत हुई।
        पहली बार अपने आसपास हो रही हर गतिविधियों को ख़बरों की नज़र से देखता था। जंतरमंतर पर कई हड़ताल काफी लंबे समय से चल रही थी मुझे उन लोगों में बड़ी खबर नज़र आती थी। कहीं और कुछ हो रहा होता तो मुझे लगता ये आज तो बड़ी खबर है। मैं बड़े जूनून से खबर बनाता और जमा करता एडिटर के पास। नया नया पेपर निकलना शुरू हुआ था तो सीधे एडिटर तक ऑलमोस्ट सभी की पहुच थी बिना रोकटोक के। पर मेरी लिखी एक भी रिपोर्ट नहीं छपी और मैंने एक दिन देवेंद्र मांझी को कह ही दिया सर इतनी रिपोर्टिंग करता हूँ एक भी खबर तो छपती नहीं है। उस पर वो झुंझला गए और बोले खबरें ऐसी नहीं मिलती है। उसे तलाशना पड़ता है भटकना पड़ता है। जाइये भटकयिये और छापने वाली खबरें ढूंढ कर लाइए।
        मैं बारहखम्भा रोड के ऑफिस से निकलकर इधर उधर भटकने लगा। कहाँ से खबर लाऊँ। कुछ सूझ नहीं रहा था। सो टहलते टहलते नई दिल्ली रेलवे स्टेशन की ओर यूँ बेमन से टाइम पास करने के लिए चल पड़ा। पर जैसे ही रेलवे स्टेशन के लिए मुड़ा। सामने फुटपाथ पर एक जगह newspapapers का स्टाल लगा था । और इसी स्टाल पर ये स्टोरी मिली और जब ऑफिस मैं ये स्टोरी लिख रहा था तो मेरे बगल में एक रेपोर्टर शैलेंद्र सिंह शायद यही नाम था उसका, ने पूछा क्या खबर लाया है और जब मैंने उसे इस खबर के बारे में बताया तो उसने बोला अच्छी खबर है। थोड़ी देर बाद वो एडिटर के कमरे में गया और बाहर देवेंद्र मांझी आये और पीठ थपथपाते हुए बोले बहुत अच्छी ख़बर है फोटो के साथ छापूंगा। बाइलाइन से। मैं बहुत खुश हुआ कई बार उन्होंने personally आकर तारीफ की। मैंने और मन से लिखा और दो पार्ट में स्टोरी लिखने का फैसला किया। एक पार्ट में ये स्टोरी थी और दूसरे पार्ट में ये पड़ताल थी की आखिर ये मस्तराम है कौन। कौन छापता है इसकी किताब ।
       पहली स्टोरी लिखकर दे तो दी पर छपी 15-20 दिन तक नहीं। मैं रोज़ एडिटर से कहता और उनसे न छापने की कोई न कोई बहाना सुनने को मिल जाता। इस ख़बर को उन्होंने संपादकीय में छापने की बात कही पर जब ऑफिस में इस रिपोर्ट के बारे में पता चला तो एक रिपोर्टर ने दिल्ली के एक इलाके की इसी विषय पर अलग ख़बर बनाकर इसी न्यूज़पेपर में छपवा दी।देवेंद्र मांझी ने फिर मुझे सांत्वना दी उसका न्यूज़ रिपोर्ट है आपका संपादकीय लेख है। आशा , उम्मीद एक बड़ी चीज़ है जिसके सहारे आदमी अपनी ज़िंदगी को चलायमान बनाये रखता है फिर भी मैं उम्मीद छोड़ चुका था तभी एक दिन कॉलेज में आते ही Ashutosh Ojha ने कहा भाई तुम तो पेपर में छा गए हो। उस दिन दो आर्टिकल छपा था मेरा एडिटोरियल पेज पर। शीर्षक बहुत ख़राब दिया है सम्पादक महोदय ने। फिर भी उनका आभारी हूँ। दूसरा पार्ट तो छपा ही नहीं पर उसी थीम पर 6 महीने के बाद Times of India के एक जॉर्नलिस्ट की ख़बर छपी और  जब मैंने पढ़ा तो मुझसे रहा नहीं गया और मैंने देवेंद्र मांझी को फ़ोन किया क्योंकि तब तक मैं दैनिक सीएनएन छोड़ आज तक में इंटर्न करने लगा था। इसपर उन्होंने कहा कि हमारे पास स्पेस की कमी थी पर आपको तो खुश होना चाहिए की जिस विषय पर आप 6 महीना पहले सोचे थे आज उस पर कोई सोच रहा है।
    मेरे साथ ऐसा तब से हो रहा है। आज भी मेरी लिखी फ़िल्म "मेरे प्यारे प्राइम मिनीस्टर" के साथ भी यही हो रहा है। अभी भी कोई फिल्म की स्क्रिप्ट लिखता हूँ पर बन पहले किसी और की जाती है।
एक बात तो समझ में आ गयी है की अगर आप की कहानी में, स्क्रिप्ट में, कंटेंट में दम है तो आप फिल्म लाइन में सर्वाइव कर सकते हैं। यहाँ कहानी की इतनी कमी है की बड़े से बड़े डायरेक्टर्स सीक्वल और रीमेक पर आकर अटक गए हैं।

No comments:

#MeToo के तर्ज पर Screenwriters (Story, Screenplay and Dialogue writers), lyrics writers and Music Directors, कोई भी creative persons और te...